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नज़्म
अवामुन्नास से पूछो भला अल-कुह्ल में क्या है
ये तअन-ओ-तंज़ की हर्ज़ा-सराई हो नहीं सकती
जौन एलिया
नज़्म
याँ तक जो हो चुका है सो है वो भी आदमी
कुल आदमी का हुस्न ओ क़ुबह में है याँ ज़ुहूर
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
क्या उन को ख़बर थी होंटों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे
इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें
जोश मलीहाबादी
नज़्म
वो फिर से एक कुल बने (किसी नवा-ए-साज़-गार की तरह)
वो फिर से एक रक़्स-ए-बे-ज़मान बने
नून मीम राशिद
नज़्म
यही कुल असासा-ए-ज़िंदगी है इसी को ज़ाद-ए-सफ़र करूँ
किसी और सम्त नज़र करूँ तो मिरी दुआ में असर न हो