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नज़्म
थे हर काख़-ओ-कू और हर शहर-ओ-क़रिया की नाज़िश
थे जिन से अमीर ओ गदा के मसाकिन दरख़्शाँ
नून मीम राशिद
नज़्म
जो एक था ऐ निगाह तू ने हज़ार कर के हमें दिखाया
यही अगर कैफ़ियत है तेरी तो फिर किसे ए'तिबार होगा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
लिखा गया है बहुत लुतफ़-ए-वस्ल ओ दर्द-ए-फ़िराक़
मगर ये कैफ़ियत अपनी रक़म नहीं है कहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मुँह ख़ुश्क दाँत ज़र्द बदन पर जमा है मैल
सब शक्ल क़ैदियों की बनाती है मुफ़्लिसी
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
वो कुछ नहीं है अब इक जुम्बिश-ए-ख़फ़ी के सिवा
ख़ुद अपनी कैफ़ियत-ए-नील-गूँ में हर लहज़ा
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
तारिक़ क़मर
नज़्म
कभी जब कोई अच्छी चीज़ पढ़ने के लिए मिलती
तो पहरों रूह पर इक वज्द की सी कैफ़ियत होती
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
तो मिरी साँसें अटकने और धड़कन थमने लगती है
तुम्हारे और अपने इश्क़ की हर कैफ़ियत से आश्ना हूँ मैं
रहमान फ़ारिस
नज़्म
ज़र्रात में कलियर के फ़रोज़ाँ तिरी तस्वीर
हांसी की फ़ज़ाओं में तिरे कैफ़ की तासीर
जगन्नाथ आज़ाद
नज़्म
है मुसव्विर की तिरे अंग अंग में गुल-कारियाँ
मो'जिज़ा लगती है तेरे हुस्न की रंगीनियाँ