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नज़्म
वो हुस्न जो ख़ंदा-ज़न था कभी महताब की उजली किरनों पर
वो गाल जिन्हों ने शरमाया शादाब कँवल के फूलों को
मोहम्मद अहसन वाहिदी
नज़्म
बे-तकल्लुफ़ ख़ंदा-ज़न हैं फ़िक्र से आज़ाद हैं
फिर उसी खोए हुए फ़िरदौस में आबाद हैं