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नज़्म
चीख़ें शो'लों के दहकने पे लपक उठती थीं
दूद के हल्क़े रवाँ होए फ़लक चर्ख़ ज़नाँ
मुख़्तार सिद्दीक़ी
नज़्म
सूरज कमाने अब छाँव न होने देना
मैं ने मरा हुआ झूट जना मुझे और सोने न देना कि अभी मुझे सच बोलना है