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नज़्म
मुज़्तरिब-बाग़ के हर ग़ुंचे में है बू-ए-नियाज़
तू ज़रा छेड़ तो दे तिश्ना-ए-मिज़राब है साज़
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
उस का मक़ाम-ए-बुलंद उस का ख़याल-ए-अज़ीम
उस का सुरूर उस का शौक़ उस का नियाज़ उस का नाज़
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जो सरापा नाज़ थे हैं आज मजबूर-ए-नियाज़
ले रहा है मय-फ़रोशान-ए-फ़रंगिस्तान से पार्स
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ग़रज़ वो हुस्न अब इस रह का जुज़्व-ए-मंज़र है
नियाज़-ए-इश्क़ को इक सज्दा-गह मयस्सर है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
हाँ कज करो कुलाह कि सब कुछ लुटा के हम
अब बे-नियाज़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ हुए तो हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
गाह हम बनते हैं क़ुमरी गाह वो बनते हैं बाज़
आप को मालूम क्या आपस का ये राज़-ओ-नियाज़
जोश मलीहाबादी
नज़्म
चराग़-ए-दैर फ़ानूस-ए-हरम क़िंदील-ए-रहबानी
ये सब हैं मुद्दतों से बे-नियाज़-ए-नूर-ए-इर्फ़ानी