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नज़्म
उस रोज़ हमें मालूम हुआ उस शख़्स का मुश्किल समझाना
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
जो हम से कहो हम करते हैं क्या 'इंशा' को समझाना है
उस लड़की से भी कह लेंगे गो अब कुछ और ज़माना है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
चल काम में अपने दिल को लगा यूँ कोई मुझे समझाता है
मैं धीरे धीरे दफ़्तर में अपने दिल को ले जाता हूँ
मीराजी
नज़्म
कौन समझेगा जहाँ में मिरे ज़ख़्मों का हिसाब
किस को ख़ुश आएगा इस दहर में रूहों का अज़ाब
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
किस को समझाएँ उसे खोदें तो फिर पाएँगे क्या
हम अगर रिश्वत नहीं लेंगे तो फिर खाएँगे क्या
जोश मलीहाबादी
नज़्म
कौन मरहम ज़ख़्म-ए-जाँ पर प्यार से रख पाएगा
दर्द की शिद्दत में मेरी पीठ को सहलाएगा
शहनाज़ परवीन शाज़ी
नज़्म
अभी तो रूह बन के ज़र्रे ज़र्रे में समाऊँगा
अभी तो सुब्ह बन के मैं उफ़ुक़ पे थरथराऊँगा
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
समझते हैं कहीं दीवानगान-ए-इश्क़ समझाए
तिरे होंटों पे मेरा नाम आ जाए तो आ जाना