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नज़्म
पस्ती-ए-ख़ाक पे कब तक तिरी बे-बाल-ओ-परी
फिर मक़ाम अपना सर-ए-अर्श-ए-बरीं पैदा कर
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
सुब्ह के ज़र्रीं तबस्सुम में अयाँ होती हूँ मैं
रिफ़अत-ए-अर्श-ए-बरीं से पर-फ़िशाँ होती हूँ मैं
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
फिरती है अब नज़र में तस्वीर उस मकाँ की
अर्श-ए-बरीं से बेहतर थी सरज़मीं जहाँ की
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
नज़्म
तेरी ऊँचाई के आगे झुकता है अर्श-ए-बरीं
है उलुल-'अज़मी तिरी मशहूर-ए-आलम बिल-यक़ीं
रंगेशवर दयाल सक्सेना सूफ़ी
नज़्म
ऐ शफ़क़ ऐ ज़ेवर-ए-आराइश-ए-चर्ख़-ए-बरीं
तुझ में वो शोख़ी है जो ख़ून-ए-शहीदाँ में नहीं
साक़िब कानपुरी
नज़्म
उन की समाअ'त क्या है
अपनी बुझती आँखों से राँझा पर्दा-ए-अर्श के पार ख़ुदा को देख के उस पर
आकाश 'अर्श'
नज़्म
जिस को कहते हैं ज़मीनों का शह-ए-अर्श-निशाँ
मुश्किल अस्नाफ़-ए-सुख़न जिस के लिए थे आसाँ
अर्श मलसियानी
नज़्म
वो गुफ़्तुगू जो सर-ए-अर्श मेरे हक़ में हुई
ख़ुदा के लहजे में अब भी सुनाई देती है