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नज़्म
मस्जिदें मर्सियाँ-ख़्वाँ हैं कि नमाज़ी न रहे
यानी वो साहिब-ए-औसाफ़-ए-हिजाज़ी न रहे
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ज़माने में जिसे हो साहिब-ए-फ़तह-ओ-ज़फ़र होना
ज़रूरी है उसे इल्म-ओ-हुनर से बहरा-वर होना
अहमक़ फफूँदवी
नज़्म
तज़्किरा हूरों का है महज़ एक तस्वीर-ए-जमाल
हम ने क्या उनको कहा है ''साहिब-ए-फ़ज़्ल-ओ-कमाल''
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मेरा ये जुर्म कि मैं साहिब-ए-इदराक-ओ-शु’ऊर
मेरा ये 'ऐब कि इक शा'इर-ओ-फ़नकार हूँ मैं