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नज़्म
अब इस में सीलन क्यूँ आ गई है....?
हमारा बिस्तर कि जिस में कोई शिकन नहीं है, उसी पे कब से,
फ़रीहा नक़वी
नज़्म
ज़र्द सीलन के ख़ोल में रख़्ने बुनता
शहर-ए-मा'दूम का लाशा नोचते ख़ुदा को घूरता हुआ मैं
हसन अल्वी
नज़्म
रुख़्सत हुआ वो बाप से ले कर ख़ुदा का नाम
राह-ए-वफ़ा की मंज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
जो सिल पर सुर्ख़ मिर्चें पीस कर सालन पकाती थीं
सहर से शाम तक मसरूफ़ लेकिन मुस्कुराती थीं
असना बद्र
नज़्म
क़यामत इस के ग़म्ज़े जान-लेवा हैं सितम इस के
हमेशा सीन-ए-मुफ़्लिस पे पड़ते हैं क़दम इस के