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नज़्म
अब यहाँ मेरी गुज़र मुमकिन नहीं मुमकिन नहीं
किस क़दर ख़ामोश है ये आलम-ए-बे-काख़-ओ-कू
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इस में क्या शक है कि मोहकम है ये इबलीसी निज़ाम
पुख़्ता-तर इस से हुए ख़ू-ए-ग़ुलामी में अवाम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
थे हर काख़-ओ-कू और हर शहर-ओ-क़रिया की नाज़िश
थे जिन से अमीर ओ गदा के मसाकिन दरख़्शाँ
नून मीम राशिद
नज़्म
न रह अपनों से बे-परवा इसी में ख़ैर है तेरी
अगर मंज़ूर है दुनिया में ओ बेगाना-ख़ू रहना