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नज़्म
गुलज़ार
नज़्म
हमीं ने घोंट दिया जिस के बचपने का गला
जो खाते-पीते घरों के हैं बच्चे उन को भी क्या
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
है यही दस्तूर दुनिया और यही देखा गया
फूल से ख़ुश्बू निकलते ही उसे फेंका गया
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
लिखाने नाम सच्चे आशिक़ों में जब भी हम निकले
इरादों में हमारे जाने कितने पेच-ओ-ख़म निकले
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
चढ़ती कहीं कहीं से उतरती हैं सीढ़ियाँ
जाने कहाँ कहाँ से गुज़रती हैं सीढ़ियाँ
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
जब हसीनों की तसावीर किताबों में मिलें
कोरे काग़ज़ ही सवालों के जवाबों में मिलें