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नज़्म
वो मेरे आसमाँ पर अख़्तर-ए-सुब्ह-ए-क़यामत है
सुरय्या-बख़्त है ज़ोहरा-जबीं है माह-ए-तलअत है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जिस के पर्दे में मिरा माह-ए-रवाँ डूब सके
तुम से चलती रहे ये राह, यूँही अच्छा है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
धुआँ सा अब नज़र आता है मुझ को माह-ए-कामिल में
तुम्हारे साथ जितने दिन गुज़ारे याद आते हैं
शौकत परदेसी
नज़्म
वो पहली शब-ए-मह शब-ए-माह-ए-दो-नीम बन जाएगी
जिस तरह साज़-कोहना के तार-ए-शिकस्ता के दोनों सिरे
नून मीम राशिद
नज़्म
मह-ए-रौशन है तू और तेरी तलअत रात भर की है
गुल-ए-शब्बू है तू और तेरी निकहत रात भर की है
अख़्तर शीरानी
नज़्म
अभी कल तक जब उस के अब्रूओं तक मू-ए-पेचाँ थे
अभी कल तक जब उस के होंट महरूम-ए-ज़नख़दाँ थे
मजीद अमजद
नज़्म
देखो हर साल आएगी माह-ए-मई की ये यकुम
सुनते हैं सीधी नहीं होती कभी कुत्ते की दुम