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नज़्म
क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मगर गुज़ारने वालों के दिन गुज़रते हैं
तिरे फ़िराक़ में यूँ सुब्ह ओ शाम करते हैं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
यूँ गुमाँ होता है गरचे है अभी सुब्ह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तुम्हारी सुब्ह जाने किन ख़यालों से नहाती हो
तुम्हारी शाम जाने किन मलालों से निभाती हो
जौन एलिया
नज़्म
आमद-ए-सुब्ह के, महताब के, सय्यारों के गीत
तुझ से मैं हुस्न-ओ-मोहब्बत की हिकायात कहूँ