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नज़्म
तुख़्म जिस का तू हमारी किश्त-ए-जाँ में बो गई
शिरकत-ए-ग़म से वो उल्फ़त और मोहकम हो गई
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
दिलों में तुख़्म-रेज़ी हो चुकी है जब कुदूरत की
भला दुश्वार क्या है ऐसे नख़्ल-ए-तर का बढ़ जाना
टीका राम सुख़न
नज़्म
ख़ुदा उस ख़ित्ता-ए-गुलज़ार को फूला फला रखे
जहाँ हम नौ-ब-नौ तुख़्म-ए-मोहब्बत बो के आए हैं