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नज़्म
कभी मोहब्बत ने ये कहा था मैं एक महबूब आदमी हूँ
मगर वो ज़र्ब-ए-जफ़ा पड़ी है कि एक मज़रूब आदमी हूँ
तारिक़ क़मर
नज़्म
काटती है सेहर-ए-सुल्तानी को जब मूसा की ज़र्ब
सतवत-ए-फ़िरऔन हो जाती है अज़ ख़ुद ग़र्क़-ए-आब
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
देख तुझ पर इल्म की भरपूर पड़ जाए न ज़र्ब
भाग इस पर्दे में हैं शैतान के आलात-ए-हर्ब
जोश मलीहाबादी
नज़्म
फ़ना में हुज़्न-दीदा ज़िंदगी ज़म होती जाती है
थकी नब्ज़ों की ख़स्ता ज़र्ब मद्धम होती जाती है
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
मक़ाम-ए-नाज़ुक पे ज़र्ब-ए-कारी से जाँ बचाने का है वसीला
कि अपनी महरूमियों से छुपने का एक हीला?
नून मीम राशिद
नज़्म
ख़ालिद मुबश्शिर
नज़्म
ये मक़ूला हिन्द में मुद्दत से है ज़र्ब-उल-मसल
जो कि जा पहुँचा दकन में बस वहीं का हो रहा
अल्ताफ़ हुसैन हाली
नज़्म
अपनी हर ज़र्ब का अब ख़ुद ही निशाना हूँ मैं
जुर्म उनवान हो जिस का वो फ़साना हूँ मैं
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
ख़ुदी की ज़र्ब से लर्ज़ां है काएनात तमाम
ख़ुदी के बहर में तूफ़ाँ नहीं तो कुछ भी नहीं