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नज़्म
छुपाऊँ क्यूँ न दिल में ख़ातिम-ए-गौहर-निगार उस की
यही ले दे के मेरे पास है इक यादगार उस की
अख़्तर शीरानी
नज़्म
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इक नार पे जान को हार गया मशहूर है उस का अफ़साना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
तिरा नन्हा सा क़ासिद जो तिरे ख़त ले कर आता था
न था मालूम उसे किस तरह के पैग़ाम लाता था
अख़्तर शीरानी
नज़्म
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी
वो इस वादी की शहज़ादी थी और शाहाना रहती थी