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नज़्म
गुल से अपनी निस्बत-ए-देरीना की खा कर क़सम
अहल-ए-दिल को इश्क़ के अंदाज़ समझाने लगीं
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
आदमी को 'अक़्ल-ओ-‘इल्म-ओ-आगही देता है कौन
चाँद को तारों को आख़िर रौशनी देता है कौन
मेहदी प्रतापगढ़ी
नज़्म
जिस को शाइ'र ख़ुद न समझे नज़्म कर लेने के बा'द
जिस को पढ़ कर गुम हो अक़्ल-ए-मौलवी-ए-मानवी
रज़ा नक़वी वाही
नज़्म
देखता है तू फ़क़त साहिल से रज़्म-ए-ख़ैर-ओ-शर
कौन तूफ़ाँ के तमांचे खा रहा है मैं कि तू
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वहदत की हिफ़ाज़त नहीं बे-क़ुव्वत-ए-बाज़ू
आती नहीं कुछ काम यहाँ 'अक़्ल-ए-ख़ुदा-दाद
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
होश-ओ-हवास-ओ-अक़ल-ओ-ख़िरद जोश-ओ-वलवले
सब कहते हैं पुकार के लो अब तो हम चले