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नज़्म
और आबादी में तू ज़ंजीरी-ए-किश्त-ओ-नख़ील
पुख़्ता-तर है गर्दिश-ए-पैहम से जाम-ए-ज़िंदगी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
छुपा कर आस्तीं में बिजलियाँ रक्खी हैं गर्दूं ने
अनादिल बाग़ के ग़ाफ़िल न बैठें आशियानों में
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क्यूँ भी कहना जुर्म है कैसे भी कहना जुर्म है
साँस लेने की तो आज़ादी मयस्सर है मगर
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
हुई अँगूर की बेटी से ''मस्ती-ख़ान'' की शादी
खुले दर मय-कदों के और मिली रिंदों को आज़ादी
मजीद लाहौरी
नज़्म
जो कुछ न होगी तो होगी क़रीब छियानवे साल
छिड़ी थी हिन्द में जब पहली जंग-ए-आज़ादी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
जिन्हें मुज़्महिल दिलों ने अबदी पनाह जाना
थके-हारे क़ाफ़िलों ने जिन्हें ख़िज़्र-ए-राह जाना