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नज़्म
अपनी नादानी कहें या अपनी क़िस्मत का क़ुसूर
दीद के ज़र्रीं अक़ाएद से हुए जाते थे दूर
जगत मोहन लाल रवाँ
नज़्म
कि अब शहरों में मार ओ अज़दर ओ कर्गस नहीं मिलते
कुतुब-ख़ानों में अफ़्क़ार-ओ-अक़ाएद जल्वा-फ़रमा हैं