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नज़्म
टुकड़े टुकड़े जिस तरह सोने को कर देता है गाज़
हो गया मानिंद-ए-आब अर्ज़ां मुसलमाँ का लहू
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
कितनी मुश्किल ज़िंदगी है किस क़दर आसाँ है मौत
गुलशन-ए-हस्ती में मानिंद-ए-नसीम अर्ज़ां है मौत
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
लिया बीवी ने शौहर के लिए जूता जो अर्ज़ां है
वो अमरीकी मदद की तरह उस के सर पे एहसाँ है
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
ख़ून अर्ज़ां है ग़रीबों का पिए जाते हैं
जब ये पीने ही पर आ जाएँ तो फिर दरिया क्या
इज़हार मलीहाबादी
नज़्म
देख हैजान से लर्ज़ां हैं ये आरिज़ की रगें
आज उस जिन्स-ए-गिराँ-बार को अर्ज़ां कर लें
अख़्तर पयामी
नज़्म
किस क़दर अर्ज़ां हुए तहज़ीब के लमआत-ए-नूर
अल्लाह अल्लाह चार जानिब रौशनी का ये वफ़ूर
जगन्नाथ आज़ाद
नज़्म
सरज़मीं वो जिस में थीं इस्मत से अर्ज़ां ज़िंदगी
कर के पत्थर का कलेजा देखने आया हूँ मैं
जयकृष्ण चौधरी हबीब
नज़्म
कह दो सारी ज़ुल्मतों से तल्ख़ियों से हों वो दूर
क्यों कि अर्ज़ां हो गई है दहर में सहबा-ए-नूर