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नज़्म
ख़्वाब इक संग-ए-शरर-बार सवाद-ए-मातम
ख़्वाब जो ख़्वाहिश-ए-तफ़्सीर को तन्हाई की साज़िश समझे
अतहर अज़ीज़
नज़्म
वो हज़र बे-बर्ग-ओ-सामाँ वो सफ़र बे-संग-ओ-मील
वो नुमूद-ए-अख़्तर-ए-सीमाब-पा हंगाम-ए-सुब्ह
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
बहुत नाज़ुक, शगुफ़्ता, तेज़-तर तासीर थी उस में
कि संग-ए-बद-गुमानी भी उसी बिल्लोर से टूटा
मोहम्मद शहबाज़ अकमल
नज़्म
क्या हुआ गर मिरे यारों की ज़बानें चुप हैं
मेरे शाहिद मिरे यारों के सिवा और भी हैं