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नज़्म
मौत और ज़ीस्त के संगम पे परेशाँ क्यूँ हो
उस का बख़्शा हुआ सह-रंग-ए-अलम ले के चलो
साहिर लुधियानवी
नज़्म
जोहद-ए-हस्ती की कड़ी धूप में थक जाने पर
जिस की आग़ोश ने बख़्शा है मुझे माँ का ख़ुलूस
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
मुझे इंसानियत का दर्द भी बख़्शा है क़ुदरत ने
मिरा मक़्सद फ़क़त शोला-नवाई हो नहीं सकता
साहिर लुधियानवी
नज़्म
ये दुनिया दावत-ए-दीदार है फ़रज़ंद-ए-आदम को
कि हर मस्तूर को बख़्शा गया है ज़ौक़-ए-उर्यानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
'अकबर' ने जाम-ए-उल्फ़त बख़्शा इस अंजुमन को
सींचा लहू से अपने 'राणा' ने इस चमन को
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
ख़िल्क़त-ए-शहर की जानिब से मलामत का अज़ाब
जिस ने अक्सर मुझे होने का यक़ीं बख़्शा था
मोहसिन नक़वी
नज़्म
अपनी दुनिया-ए-हसीं दफ़्न किए जाता हूँ
तू ने जिस दिल को धड़कने की अदा बख़्शी थी
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
मार्क्स ने साइंस ओ इंसाँ को किया है हम-कनार
ज़ेहन को बख़्शा शुऊर-ए-ज़िंदगानी का निसाब