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नज़्म
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
तमाम मौसम भी उठा कर डाल दिए हैं
मुझे याद है कि शुऊ'र की पहली सीढ़ियों पर पाँव रखते ही
सलीम फ़िगार
नज़्म
आज की खोटी मंज़िल और बले कैसा कुंदहन रंज उगा है
आस के सैर जीवन सोतों से फूट बही घनघोर बधाई
सलाहुद्दीन परवेज़
नज़्म
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ नज़रों से
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेश-क़दमी से
साहिर लुधियानवी
नज़्म
तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में
उस के मल्बूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है