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नज़्म
मिरी 'सलमा' मुझे ले चल तू उन रंगीं बहारों में!
जहाँ रंगीं बहिशतें खेलती हैं सब्ज़ा-ज़ारों में!
अख़्तर शीरानी
नज़्म
ज़ोहरा ओ माह से महरूम है जज़्बात की रात
ज़ाफ़राँ-ज़ार बहिश्तों में भी उड़ता है ग़ुबार
शमीम करहानी
नज़्म
लिया है कितने बहिश्तों से इंतिक़ाम न पूछ
गुलों के दाम ख़रीदे हैं कितने बर्क़-ओ-शरार
मंज़ूर हुसैन शोर
नज़्म
जिन बहिश्तों से मैं गुज़रा हूँ वो याद आती गईं
शैख़ कल ख़ुल्द की तारीफ़ जो फ़रमाते रहे
सईदुल ज़फर चुग़ताई
नज़्म
सरापा रंग-ओ-बू है पैकर-ए-हुस्न-ओ-लताफ़त है
बहिश्त-ए-गोश होती हैं गुहर-अफ़्शानियाँ उस की
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
बहिश्त जैसे जाग उठे ख़ुदा के ला-शुऊर में!
मैं जाग उठा ग़ुनूदगी की रेत पर पड़ा हुआ
नून मीम राशिद
नज़्म
यही वादी है वो हमदम जहाँ 'रेहाना' रहती थी
इसी वीराना में इक दिन बहिश्तें लहलहाती थीं
अख़्तर शीरानी
नज़्म
रश्क-ए-शीराज़-कुहन हिन्दोस्ताँ की आबरू
सर-ज़मीन-ए-हुस्न-ओ-मौसीक़ी बहिश्त-ए-रंग-ओ-बू