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नज़्म
हम ने बकरी के बच्चों को कमरों में नचाना छोड़ दिया
नाराज़ न हो अम्मी हम ने हर शौक़ पुराना छोड़ दिया
राजा मेहदी अली ख़ाँ
नज़्म
थी इक बकरे नुमा बुर्राक़ दाढ़ी उन के चेहरे पर
मगर फिर भी कबड्डी खेलते थे रात को अक्सर
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
क़ामत में बकरा ऊँट की क़ीमत का हम-ख़याल
दिल बैठता है उठते ही क़ुर्बानी का सवाल
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
चला आता है ख़ुद अंजाम से अंजान है बकरा
नहीं हरगिज़ नहीं किस ने कहा नादान है बकरा