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नज़्म
गुमाँ-आबाद हस्ती में यक़ीं मर्द-ए-मुसलमाँ का
बयाबाँ की शब-ए-तारीक में क़िंदील-ए-रुहबानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अता ऐसा बयाँ मुझ को हुआ रंगीं-बयानों में
कि बाम-ए-अर्श के ताइर हैं मेरे हम-ज़बानों में
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हाँ देखा कल हम ने उस को देखने का जिसे अरमाँ था
वो जो अपने शहर से आगे क़र्या-ए-बाग़-ओ-बहाराँ था
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
नगर नगर के देस देस के पर्बत टीले और बयाबाँ
ढूँड रहे हैं अब तक मुझ को खेल रहे हैं मेरे अरमाँ
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
जिस बयाबाँ में भी हम होंगे चले आएँगे
दर खुला देखा तो शायद तुम्हें फिर देख सकें