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नज़्म
कि आईने में दहर के मैं अक्स-ए-किर्दगार हूँ
कलीम को मैं अपना रुख़ न बे-ख़तर दिखा सका
सय्यद वहीदुद्दीन सलीम
नज़्म
इस महीने में ग़ारत-गरी मनअ थी, पेड़ कटते न थे तीर बिकते न थे
बे-ख़तर थी ज़मीं मुस्तक़र के लिए
अख़्तर हुसैन जाफ़री
नज़्म
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
अहल-ए-बातिल देख कर हैरत से मुँह तकते रहे
राह-ए-हक़ पर बे-ख़तर बा-इज़्ज-ओ-शाँ बढ़ता गया