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नज़्म
साज़-ए-आहंग-ए-जुनूँ तार-ए-रग-ए-जाँ के लिए
बे-ख़ुदी शौक़ की बे-सर-ओ-सामाँ के लिए
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
मौलवी हाली हूँ या मिस्टर कलीमुद्दीन हूँ
उन की नज़रों में ग़ज़ल बे-रब्तई-ए-अफ़्कार है
असरार जामई
नज़्म
काँपती टूटती ज़ंजीरों पे रक़्स-ए-बे-रब्त
रक़्स-ए-बे-रब्त में फिर रब्त सा आ जाएगा
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
जवानी की अँधेरी रात है ज़ुल्मत का तूफ़ाँ है
मिरी राहों से नूर-ए-माह-ओ-अंजुम तक गुरेज़ाँ है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
बहुत से भेद ऐसे हैं जिन्हें मेरी नज़र का दूर तक फैला हुआ दामन
अभी तक छू नहीं पाया