दी लास्ट समुराई
गवाह रहना
ये पस्त-क़ामत करीह चेहरों घमंड लहजों सिसकती सरगोशियों के हामिल
मिरे क़बीले के सूरमा सब
नजिस अखाड़ों में अपने लाग़र नहीफ़ जिस्मों को चाटते हैं
मिरे क़बीले के फ़ल्सफ़ा-गर
ग़लीज़ फ़ासिद रुतूबतों से भरी टपकती सराब सोचों से काम ले कर अजीब मंतिक़ तराशते हैं
ये फ़ल्सफ़ा-गर सदा-ओ-आहंग-ओ-हर्फ़-ओ-मा'नी को ज़ख़्म दे कर लहू का कच्चा खुरनड दाँतों से नोचते हैं
गवाह रहना
कि शहर-ए-बे-फ़ैज़ में नुमू का कोई हवाला भी मो'तबर नईं
लहू में लिथड़ी बुरीदा लाशों का ग़म उठाते
उदास चेहरों ग़ुबार जिस्मों से ज़िंदगी का ज़रा गुज़र नईं
कि ऐसे बे-मेहर आब-ओ-गिल में
बिलकते लहजों उचाट नींदों अधूरे ख़्वाबों के दुख उठाए
फ़सील-ए-शोरिश पे साँस रोके क़दम जमाए
उफ़ुक़ के मुतवाज़ी चलने वालों में एक था वो
और एक ही था
जो पस्त-ओ-बाला के सब मनाज़िर नज़र में रक्खे
घुटन भरे हब्स मौसमों की स्याह साज़िश से
शहर-ए-बे-फ़ैज़ को बचाने निकल पड़ा था
क़बीले वालो गवाह रहना
अबद से इम्कान-ए-बे-मकानी
शुरूअ' ओ आख़िर से अपनी पहचाँ की जुस्तुजू का वो एक वारिस
फ़सील-ए-शोरिश के ख़स्ता ज़ीने ख़राब गुम्बद
तबाह मीनारों टूटे बुर्जों के इस खंडर में
उफ़ुक़ के मुतवाज़ी चार अतराफ़ चलने वाले
अज़ाब तीरों को अपने सीने पे सहते सहते
निढाल हिजरत की आख़िरी हद पे जा चुका है
वो अपने अज्दाद की रिवायत का नाम-लेवा
बहुत बुलंदी पे जा चुका है
क़बीले वालो गवाह रहना
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