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नज़्म
बशर नवाज़
नज़्म
गुलू-ए-कुश्ता से बेहिस ज़बान-ए-ख़ंजर से
सदा लपकती है हर सम्त हर्फ़-ए-हक़ की तरह
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
जो लुट कर आए हैं उन को सब्र आते आते आएगा
लेकिन इस बेहिस दुनिया में एहसास-ए-हक़ीक़त कौन करे
अबुल फ़ितरत मीर ज़ैदी
नज़्म
इस क़दर बेहिस-ओ-बद-हवास हुए, हम ख़ुद से ही उदास हुए
बड़ा शहर बड़ा शहर, बड़ा शहर बड़ा शहर
परवेज़ शहरयार
नज़्म
पत्थरों की इसी अंजुमन का मुग़न्नी हूँ मैं
और बेदर्द बे-हिस सितमगार पत्थर सुनेंगे कभी
वहीद अख़्तर
नज़्म
लेकिन ऐ दोस्त! मिरे दर्द के बे-हिस नक़्क़ाद
मिरे आँसू मिरी आहें भी तो कुछ कहती हैं