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नज़्म
इक रोज़ मगर बरखा-रुत में वो भादों थी या सावन था
दीवार पे बीच समुंदर के ये देखने वालों ने देखा
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
मुफ़्लिस करे जो आन के महफ़िल के बीच हाल
सब जानें रोटियों का ये डाला है इस ने जाल
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
इसी के बीच में है एक पेड़ पीपल का
सुना है मैं ने बुज़ुर्गों से ये कि उम्र उस की
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
निगाहें बिछ रही हैं रास्ता ज़र-कार है अब भी
मगर जान-ए-हज़ीं सदमे सहेगी आख़िरश कब तक
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
पेश करती बीच नद्दी में चराग़ाँ का समाँ
साहिलों पर रेत के ज़र्रों को चमकाती हुई
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
चीरे के बीच में चीरा है और पटके बीच जो है पटका
क्या कहिए और 'नज़ीर' आगे है ज़ोर तमाशा झट-पटका