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नज़्म
जहाँ में दानिश ओ बीनिश की है किस दर्जा अर्ज़ानी
कोई शय छुप नहीं सकती कि ये आलम है नूरानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
उस की बींनिश उस की वज्दानी-निगाह-ए-हक़-शनास
कर गई जो चेहरा-ए-इफ़्लास-ए-ज़र को बे-नक़ाब
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
जहाँबानी से है दुश्वार-तर कार-ए-जहाँ-बीनी
जिगर ख़ूँ हो तो चश्म-ए-दिल में होती है नज़र पैदा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
इक रोज़ मगर बरखा-रुत में वो भादों थी या सावन था
दीवार पे बीच समुंदर के ये देखने वालों ने देखा
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
ज़मीं क्या आसमाँ भी तेरी कज-बीनी पे रोता है
ग़ज़ब है सत्र-ए-क़ुरआन को चलेपा कर दिया तू ने
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
याँ हुस्न की बर्क़ चमकती है याँ नूर की बारिश होती है
हर आह यहाँ इक नग़्मा है हर अश्क यहाँ इक मोती है
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
शम-ए-हक़ से जो मुनव्वर हो ये वो महफ़िल न थी
बारिश-ए-रहमत हुई लेकिन ज़मीं क़ाबिल न थी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुफ़्लिस करे जो आन के महफ़िल के बीच हाल
सब जानें रोटियों का ये डाला है इस ने जाल