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नज़्म
फिरता है बोसे देता है हर इक को ख़्वाह-मख़ाह
हरगिज़ किसी के दिल को नहीं होती उस की चाह
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
बद बहुत बद-शक्ल हैं लेकिन बदी है नाज़नीं
जड़ को बोसे दे रहे हैं पेड़ से चीं-बर-जबीं
जोश मलीहाबादी
नज़्म
महबूब गले से लिपटा हो और कुहनी, चुटकी, लातें हों
कुछ बोसे मिलते जाते हों कुछ मीठी मीठी बातें हों
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मगर कहते हैं तारों की हुकूमत रात भर की है
लताफ़त से हैं ख़ाली तेरे कुम्हलाए हुए बोसे
अख़्तर शीरानी
नज़्म
कि मैं ने लिए हैं मिसिज़-साला-माँका के होंटों के बोसे
वो बोसे कि जिन की हलावत के चश्मे
नून मीम राशिद
नज़्म
हमारे चेहरों पे जिन के बोसे जुड़े हुए हैं
वो आँखें अंधी लहद में शायद बिखर चुकी हों