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नज़्म
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
वो ख़मोशी शाम की जिस पर तकल्लुम हो फ़िदा
वो दरख़्तों पर तफ़क्कुर का समाँ छाया हुआ
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हुक्मराँ दिल पर रहे सदियों तलक असनाम भी
अब्र-ए-रहमत बन के छाया दहर पर इस्लाम भी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ज़रा ख़ुनकी बढ़ी और तिल के लड्डू ले के माय आ पहुँचती थी
हक़ीक़त में वो बड़ का पेड़ थी जिस की घनी छाया
इशरत आफ़रीं
नज़्म
इक निगारिश-ए-आतिशीं हर शय पे है छाया हुआ
जैसे आरिज़ पर उरूस-ए-नौ के हो रंग-ए-हया
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
सियाही बन के छाया शहर पर शैतान का फ़ित्ना
गुनाहों से लिपट कर सो गया इंसान का फ़ित्ना