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नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
तिरी चीन-ए-जबीं ख़ुद इक सज़ा क़ानून-ए-फ़ितरत में
इसी शमशीर से कार-ए-सज़ा लेती तो अच्छा था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
कौन तुम से छीन सकता है मुझे क्या वहम है
ख़ुद ज़ुलेख़ा से भी तो दामन बचा सकता हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
तो माँ की भटकी हुई रूह को दिखाता राह
वो माँ मैं जिस की मोहब्बत के फूल चुन न सका
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
यूँ ज़बान-ए-बर्ग से गोया है उस की ख़ामुशी
दस्त-ए-गुल-चीं की झटक मैं ने नहीं देखी कभी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ज़बान छिन जाएगी हमारे दहन से हम बे-सुख़न रहेंगे
हम आज भी कल की तरह दिल के सितार पर नग़्मा-ज़न रहेंगे