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नज़्म
हज़ारों क़र्ज़ थे मुझ पर तुम्हारी उल्फ़त के
मुझे वो क़र्ज़ चुकाने का मौक़ा तो देते
ज़ुबैर अली ताबिश
नज़्म
तोड़ देते हैं जहालत के अँधेरों का तिलिस्म
इल्म की शम्अ' जलाते हैं हमारे उस्ताद