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नज़्म
मिरे सीने में कब सोज़िंदा-तर दाग़ों के हैं थाले
मगर दोज़ख़ पिघल जाए जो मेरे साँस अपना ले
जौन एलिया
नज़्म
फ़ाक़ों की चिताओं पर जिस दिन इंसाँ न जलाए जाएँगे
सीनों के दहकते दोज़ख़ में अरमाँ न जलाए जाएँगे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
सीने के दहकते दोज़ख़ में अरमाँ न जलाए जाएँगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया जब स्वर्ग बताई जाएगी
साहिर लुधियानवी
नज़्म
कितने दोज़ख़ उस के इक मंशूर से जन्नत बने
कितने सहराओं को जिस ने कर दिया शहर-ए-गुलाब
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
ऐ ख़ुदा हिन्दोस्ताँ पर ये नहूसत ता-कुजा?
आख़िर इस जन्नत पे दोज़ख़ की हुकूमत ता-कुजा?
जोश मलीहाबादी
नज़्म
जलाना छोड़ दें दोज़ख़ के अंगारे ये मुमकिन है
रवानी तर्क कर दें बर्क़ के धारे ये मुमकिन है
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
ग़ुलामी और आज़ादी बस इतना जानते हैं हम
न हम दोज़ख़ समझते हैं न हम जन्नत समझते हैं