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नज़्म
शजर है फ़िरक़ा-आराई तअस्सुब है समर उस का
ये वो फल है कि जन्नत से निकलवाता है आदम को
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अभी अंदाज़ा हो सकता नहीं उस की बुलंदी का
अभी दुनिया की आँखों पर है पर्दा फ़िरक़ा-बंदी का
हफ़ीज़ जालंधरी
नज़्म
है यही दस्तूर दुनिया और यही देखा गया
फूल से ख़ुश्बू निकलते ही उसे फेंका गया
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
क्या तुम्हें छूत का ये दर्स बुज़ुर्गों ने दिया
क्या तुम्हें फ़िरक़ा-परस्ती की इजाज़त दी थी
कँवल डिबाइवी
नज़्म
बहुत समझे थे हम इस दौर की फ़िरक़ा-परस्ती को
ज़बाँ भी आज शैख़-ओ-बरहमन है हम नहीं समझे
राशिद बनारसी
नज़्म
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
कोई कर सकता नहीं फ़िरक़ा-परस्तों की शनाख़्त
एक दो क्या टोलियों की टोलियाँ देहली में हैं