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नज़्म
कभी जब सोचता हूँ अपने बारे में तो कहता हूँ
कि तू इक आबला है जिस को आख़िर फूट जाना है
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
फूल क्या ख़ार भी हैं आज गुलिस्ताँ-ब-कनार
संग-रेज़े हैं निगाहों में गुहर आज की रात
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
हो न ये फूल तो बुलबुल का तरन्नुम भी न हो
चमन-ए-दह्र में कलियों का तबस्सुम भी न हो