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नज़्म
खिंच के दुश्मन से गले तेग़-ए-रवाँ मिलती है
दम दफ़ना करने को ग़ारत-गर-ए-जाँ मिलती है
बर्क़ देहलवी
नज़्म
दूर इक मेडक चीख़ रहा है, ख़तरों से आज़ाद हूँ मैं
इस से बढ़ कर ग़ारत-गर तूफ़ान नज़र से गुज़रे हैं
साक़ी फ़ारुक़ी
नज़्म
ऐ ज़न-ए-नापाक फ़ित्रत-ए-पैकर-ए-मकर-ओ-रिया
दुश्मन-ए-मेहर-ओ-वफ़ा ग़ारत-गर-ए-शर्म-ओ-हया
माहिर-उल क़ादरी
नज़्म
तेरी मौजों में है ये किस की सदा-ए-दिल-फ़रेब
गा रही है कौन ये ग़ारतगर-ए-सब्र-ओ-शकेब