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नज़्म
ता-सर-ए-अर्श भी इंसाँ की तग-ओ-ताज़ है क्या
आ गई ख़ाक की चुटकी को भी परवाज़ है क्या
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मिरे घर का वही सरनाम-तर है जो भी बिस्मिल है
गुज़श्त-ए-वक़्त से पैमान है अपना अजब सा कुछ
जौन एलिया
नज़्म
है तवाफ़-ओ-हज का हंगामा अगर बाक़ी तो क्या
कुंद हो कर रह गई मोमिन की तेग़-ए-बे-नियाम
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
नग़्मा-ए-बुलबुल हो या आवाज़-ए-ख़ामोश-ए-ज़मीर
है इसी ज़ंजीर-ए-आलम-गीर में हर शय असीर