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नज़्म
है यही दस्तूर दुनिया और यही देखा गया
फूल से ख़ुश्बू निकलते ही उसे फेंका गया
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
लिखाने नाम सच्चे आशिक़ों में जब भी हम निकले
इरादों में हमारे जाने कितने पेच-ओ-ख़म निकले
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
चढ़ती कहीं कहीं से उतरती हैं सीढ़ियाँ
जाने कहाँ कहाँ से गुज़रती हैं सीढ़ियाँ
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
जब हसीनों की तसावीर किताबों में मिलें
कोरे काग़ज़ ही सवालों के जवाबों में मिलें
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
सितारों के नगर जाने का अक्सर सोचते हैं हम
तुम्हें अपना बनाने का भी अक्सर सोचते हैं हम
नाज़िया ग़ौस
नज़्म
मिरी मश्क़-ए-सुख़न का जब हुआ उन पर असर ज़्यादा
मेहरबानी है उन की मुझ पे कम और है क़हर ज़्यादा
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
जब चलते चलते रस्ते में ये गौन तिरी रह जावेगी
इक बधिया तेरी मिट्टी पर फिर घास न चरने आवेगी
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
यूँही देखूँ जो राखी को तो ये रंगीन डोरा है
जो देखूँ ग़ौर से इस को तो है ज़ंजीर लोहे की
फौज़िया मुग़ल
नज़्म
ज़रा देखो तो मुझ को ग़ौर से शायद वो मैं ही था
बहुत दिन में मिले हैं हम तो आओ आज जी भर कर
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
सुनो ये ग़ौर से माएँ बिलक रही हैं कहीं
ये देखो बच्चों की आँखें छलक रही हैं कहीं