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नज़्म
तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छम जावेगा
या सूद बढ़ा कर लावेगा या टूटा घाटा पावेगा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
एक गाता हुआ यूँ जाता है धरती से फ़लक की जानिब
पूरी क़ुव्वत से कोई गेंद उछाले जैसे
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
घटा की घन-गरज से क़ल्ब-ए-गीती काँप जाता है
मगर मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता ही जाता हूँ