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नज़्म
बस चली जा रही है उम्र-ए-गुरेज़ाँ की तरह
ठस के बैठे हैं मुसाफ़िर सफ़-ए-मिज़्गाँ की तरह
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
आ कि तुझ को साहिब-ए-महर-ओ-वफ़ा करते हैं हम
ले ख़ुद अपनी जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ अता करते हैं हम
जोश मलीहाबादी
नज़्म
फूल बरसाता है अपने दोस्तों की बज़्म में
और गिराता है सफ़-ए-अग़्यार पर ये बिजलियाँ
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
नज़्म
ब्रिज-भाषा में है जो लज़्ज़त वो लज़्ज़त इस में है
साफ़ क़ंद-ए-फ़ारसी की भी हलावत इस में है
सफ़ी लखनवी
नज़्म
बयाज़-ए-दिल को जो खोलें तो जुस्तुजू होगी
हर एक सफ़्हा-ए-हस्ती की गुफ़्तुगू होगी