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नज़्म
ये कैफ़ियत थी और एक जोगन सितार बैठी बजा रही थी
मगर वो जंगल की शाहज़ादी बहार के गीत गा रही थी
जमील मज़हरी
नज़्म
मुँह मोड़ कर जहाँ से फिरता हूँ दश्त-ओ-सहरा
मसरूफ़-ए-जुस्तुजू हूँ मंज़िल से बे-ख़बर हूँ
अमीर औरंगाबादी
नज़्म
जोगी भी जो नगर नगर में मारे मारे फिरते हैं
कासा लिए भबूत रमाए सब के द्वारे फिरते हैं
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लर्ज़ां हैं
तेरी आवाज़ के साए तिरे होंटों के सराब
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
और ये सफ़्फ़ाक मसीहा मिरे क़ब्ज़े में नहीं
इस जहाँ के किसी ज़ी-रूह के क़ब्ज़े में नहीं