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नज़्म
तो मस्जिद ही करूँ आबाद कुछ करना ज़रूरी है
ख़ुदा भी मुझ को काहिल पा के फिर बरहम न हो जाए
सलाम मछली शहरी
नज़्म
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स ओ ख़ाक तले
खिल रहे हैं तिरे पहलू के समन और गुलाब