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नज़्म
है लहद इस क़ुव्वत-ए-आशुफ़्ता की शीराज़ा-बंद
डालती है गर्दन-ए-गर्दूं में जो अपनी कमंद
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अब इस से पहले कि रात अपनी कमंद डाले ये चाहता हूँ कि लौट जाऊँ
अजब नहीं वो किताब अब भी वहीं पड़ी हो
इफ़्तिख़ार आरिफ़
नज़्म
फेंक फिर जज़्बा-ए-बे-ताब की आलम पे कमंद
एक ख़्वाब और भी ऐ हिम्मत-ए-दुश्वार-पसंद