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नज़्म
तारिक़ क़मर
नज़्म
तमन्नाओं के मेले अब नहीं लगते कभी दिल में
कशिश बाक़ी रही कोई न राहों में, न मंज़िल में
शौकत परदेसी
नज़्म
बस तसलसुल से बढ़ती हुई इक कशिश के असर में रहे
इक यक़ीनी फ़ना के सफ़र में रहे