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नज़्म
देखे हैं इस से बढ़ के ज़माने ने इंक़लाब
जिन से कि ब-गुनाहों की उम्रें हुईं ख़राब
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
यादों के बे-म'अनी दफ़्तर ख़्वाबों के अफ़्सुर्दा शहाब
सब के सब ख़ामोश ज़बाँ से कहते हैं ऐ ख़ाना-ख़राब
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
फिर शबिस्तान-ए-तरब की राह दिखलाता है तू
मुझ को करना चाहता है फिर ख़राब-ए-रंग-ओ-बू
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मैं ने बढ़ कर मुर्शिद-ए-इक़बाल से ये अर्ज़ की
आप को हम तीरा-बख़्तों की ख़बर है या नहीं