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नज़्म
हर सुब्ह है ये ख़िदमत ख़ुर्शीद-ए-पुर-ज़िया की
किरनों से गूँधता है चोटी हिमालिया की
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
कहा कि दोनों रहो शामिल-ए-हाल होली में
फिर अपने तन में जो पहना वो ख़िलअत-ए-रंगीं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
था हुस्न तख़य्युल में अब तक ख़िलअ'त न मिला था सूरत का
बेताब निगाहें थीं सारी वा दर न हुआ था जन्नत का
अमीर औरंगाबादी
नज़्म
मैं वो हूँ जिस ने अपने ख़ून से मौसम खिलाए हैं
न-जाने वक़्त के कितने ही आलम आज़माए हैं
जौन एलिया
नज़्म
गर कभी ख़ल्वत मयस्सर हो तो पूछ अल्लाह से
क़िस्सा-ए-आदम को रंगीं कर गया किस का लहू